प्रसिद्ध विद्वानों के विचार मिलेंगे

आपके गांव-शहर के  नजदीक जो भी यूनिवर्सिटी है ,  समय निकाल कर उसमें जाएं  ।  यूँ तो आप पूरे संसार की किसी भी यूनिवर्सिटी में चले जाइये , आपकी मर्जी है । वहां जाकर आप किसी भी विभाग में चले जाइये , यहां विभाग के चयन में भी आपकी मर्जी है । उस विभाग के पुस्तकालय की कोई भी पुस्तक ले लीजिए , यहां भी पुस्तक के चयन में आपकी मर्जी है । उस पुस्तक का कोई भी टॉपिक वाला अध्याय खोलिए , यहां टॉपिक चयन में भी आपकी मर्जी है ।



उस टॉपिक ( विषय ) पर आपको विभिन्न प्रसिद्ध विद्वानों के विचार मिलेंगे । कहीं समानता नहीं मिलेगी विचारों में । आपस में जबरदस्त वैचारिक मतभेद मिलेगा हर विषय पर । लड़ते मिलेंगे । एक दूसरे के सिद्धांत की आलोचना करेंगे । भविष्य के नए विशेषज्ञ पुराने विद्वानों की सारी थ्यूरी को नकार देंगे । आश्चर्य है कि अंत में सबके विचारों को सुनने के बाद मजबूर होकर पुस्तक का लेखक उस खास टॉपिक पर  एक सर्वसम्मति वाली परिभाषा निश्चित करेगा । यह हास्यास्पद भी है क्योंकि अंत में पुस्तक लेखक के निर्णय को पढ़कर ऐसा लगता है कि राइटर उन सब विद्वानों से श्रेष्ठ है ।


 



उधर पौने दो अरब सालों से इस पृथ्वी पर अरबों ऋषि हुए हैं । हर विषय पर मोटे-मोटे शास्त्रों का एक पूरा व्यवस्थित ढांचा है , शाखाएं और उपशाखाएँ हैं । हजारों व्यवस्थित शास्त्र हैं ,  उसके बावजूद भी अरबों ऋषियों में से एक भी ऋषि ऐसा न हुआ जिसने किसी दूसरे ऋषि से भिन्न व्याख्या की हो किसी एक विषय पर । कहीं रत्तीभर भी मतभेद नहीं । कोई मतभेद का प्रश्न ही नहीं । किसी भी शास्त्र की कोई पंक्ति,  कोई शब्द, और कहीं कोमा या फुलस्टॉप का भी अंतर नहीं ( जर्मन से मंगवाए वेदों में से ऋग्वेद में दो शब्दों में व सामवेद के एक शब्द में किसी ने लिखते समय छपाई में कोई मात्रा में गलती कर दी थी जिसे विद्वानों ने तुरंत पहचान कर ठीक कर दिया था अभी कुछ साल पहले )  यह भी ध्यान रहे कि यह सार्वभौमिक सत्य है कि अरबों ऋषियों में कोई डील , कोई कोम्प्रोमाईज़ सम्भव नहीं हो सकता फिर भी विचारों में साम्यता है । कल्पना कीजिये कोई ऋषि दूर गंगोत्री की किसी गुफा में साधनारत है और कन्द-मूल खाकर रहता है , क्या उसे कोई खरीद सकता है ? क्या उसे कोई रिश्वत दे सकता है ? 


अंग्रेजी राज के खिलाफ जब भारत में असहयोग आंदोलन चल रहे थे तो भारत के किसी बड़े अधिकारी को लंदन की पार्लियामेंट में यह टिप्स दिया गया कि आंदोलन के नेताओं को बड़ा लालच देकर खरीद लो तो उस अधिकारी ने महाऋषि अरविंद घोष के बारे में बताया कि वे एक लंगोटी मात्र में रहते हैं और दो रोटी खाते हैं , उन्हें पूरी पृथ्वी का राज्य भी दे दो तो भी वे एक लंगोटी में ही रहेंगे और दो रोटी ही खाएंगे , ऐसे अजीब लोगों को संसार में कोई नहीं खरीद सकता और ऐसे लोग केवल भारत में ही पाए जाते हैं । 



हमारे विश्वविद्यालयों में जिन पश्चमी विद्वानों की पुस्तकें , सिद्धांत और थ्यूरी पढाई जाती है वे विद्वान वास्तव में भारतीय सन्दर्भों में देखा जाए तो इसमें से कई तो विद्यार्थी होने की योग्यता भी नहीं रखते ।



( क्या ये बातें आश्चर्यजनक और विचारणीय नहीं हैं  )